Panth hone do aparichit पंथ होने दो अपरिचित mahadevi varma

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 पंथ होने दो अपरिचित / महादेवी वर्मा 



पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला


घेर ले छाया अमा बन

आज कंजल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन


और होंगे नयन सूखे

तिल बुझे औ’ पलक रूखे

आर्द्र चितवन में यहां

शत विद्युतों में दीप खेला


अन्य होंगे चरण हारे

और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे


दुखव्रती निर्माण उन्मद

यह अमरता नापते पद

बांध देंगे अंक-संसृति

से तिमिर में स्वर्ण बेला


दूसरी होगी कहानी

शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी


आज जिस पर प्रलय विस्मित

मैं लगाती चल रही नित

मोतियों की हाट औ’

चिनगारियों का एक मेला


हास का मधु-दूत भेजो

रोष की भ्रू-भंगिमा पतझार को चाहे सहे जो


ले मिलेगा उर अचंचल

वेदना-जल, स्वप्न-शतदल

जान लो वह मिलन एकाकी

विरह में है दुकेला!



(दीपशिखा 1942)

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