Fir vikal hai pran mere mahadevi varma फिर विकल हैं प्राण मेरे!

Avinash
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 फिर विकल हैं प्राण मेरे!



तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख लूं उस ओर क्या है!

जा रहे जिस पंथ से युग कल्प उसका छोर क्या है?

क्यों मुझे प्राचीर बन कर

आज मेरे श्वास घेरे?


सिन्धु की नि:सीमता पर लघु लहर का लास कैसा?

दीप लघु शिर पर धरे आलोक का आकाश कैसा!

दे रही मेरी चिरन्तनता

क्षणों के साथ फेरे!


बिम्बग्राहकता कणों को शलभ को चिर साधना दी,

पुलक से नभ भर धरा को कल्पनामय वेदना दी;

मत कहो हे विश्व! ‘झूठे

हैं अतुल वरदान तेरे’!


नभ डुबा पाया न अपनी बाढ़ में भी छुद्र तारे,

ढूँढने करुणा मृदुल घन चीर कर तूफान हारे;

अन्त के तम में बुझे क्यों

आदि के अरमान मेरे!


-महादेवी वर्मा

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