Sham hone ko hui शाम होने को हुई / शमशेर बहादुर सिंह

Avinash
0

 शाम होने को हुई / शमशेर बहादुर सिंह 



शाम होने को हुई, लौटे किसान

दूर पेड़ों में बढ़ा खग-रव।

धूल में लिपटा हुआ है आसमान:

शाम होने को हुई, नीरव।

 

तू न चेता। काम से थक कर

फटे-मैले वस्‍त्र में कमकर

लौट आये खोलियों में मौन।

चेतने वाला न तू - है कौन?

 

शाम; हम-तुम, और बाबू लोग,

लड़कियां चंचल, निठल्‍ले युवक,

स्‍फूर्त-मन सब सिनेमा की ओर

चले : जाने कौन-सी है ललक।

 

घुमड़ते-घुटते हृदय के भाव

चित्रपट पर नग्‍न आते बिखर :

आर्थिक वास्‍तविकता का दांव

भूल, हम छूते अपार्थिव शिखर।

 

हाय कर उठते हमारे नयन;

होंट सी लेते दबा अफसोस :

मांगता उर-भार अन्तिम शयन ...

चांदनी सित वक्ष कोमल ओस।

 

दूर की मर्मर-मिली नीहार,

दूर की नीहार मालाएं;

निकट, तम-विक्षिप्‍त सागर-फेन।

एक ही आह्वान : आ जाएं!

आज आ जाएं हमारे ऐन!

 

भूल के मंदिर सुघर बहुमूल्‍य

हृदय को विश्‍वास देते दान :

प्राप्‍य श्‍लाघा से अयाचित मान;

स्‍वप्‍न भावी, द्रव्‍य से अनुकूल।

 

दीन का व्‍यापार श्‍लाघामय!

... ...

छिन्‍न-दल कर कागजी विस्‍मय

सत्‍य के बल शूल हूलूं मैं!

-शाम निर्धन की न भूलूं मैं!


रात हो आयी; चमक उट्ठे कई

बल्ब; ऊपर अग्रहायण, दूर -

नभ में। दूर तक उट्ठे अधीर

भाव...कैसे सहज, कैसे क्रूर!


(1945)

Post a Comment

0Comments
Post a Comment (0)