Nadi ke dwip agyey नदी के द्वीप अज्ञेय

Avinash
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 नदी के द्वीप / अज्ञेय 



हम नदी के द्वीप हैं।

हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए।

वह हमें आकार देती है।

हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल

सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।

 

माँ है वह! है, इसी से हम बने हैं।

किंतु हम हैं द्वीप। हम धारा नहीं हैं।

स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के।

किंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।

हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।

पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जाएँगे।

 

और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते?

रेत बनकर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे।

अनुपयोगी ही बनाएँगे।

 

द्वीप हैं हम! यह नहीं है शाप। यह अपनी नियती है।

हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी की क्रोड में।

वह बृहत भूखंड से हम को मिलाती है।

और वह भूखंड अपना पितर है।

नदी तुम बहती चलो।

भूखंड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है,

माँजती, सस्कार देती चलो। यदि ऐसा कभी हो -

 

तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के,

किसी स्वैराचार से, अतिचार से,

तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे -

यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल,

प्रावाहिनी बन जाए -

तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर।

फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।

कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।

मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।



(हरी घास पर क्षण भर - 1949)

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