सब आँखों के आँसू उजले / महादेवी वर्मा
सब आँखों के आँसू उजले सबके सपनों में सत्य पला!
जिसने उसको ज्वाला सौंपी
उसने इसमें मकरंद भरा,
आलोक लुटाता वह घुल-घुल
देता झर यह सौरभ बिखरा!
दोनों संगी, पथ एक किंतु कब दीप खिला कब फूल जला?
वह अचल धरा को भेंट रहा
शत-शत निर्झर में हो चंचल,
चिर परिधि बना भू को घेरे
इसका उर्मिल नित करूणा-जल
कब सागर उर पाषाण हुआ, कब गिरि ने निर्मम तन बदला?
नभ तारक-सा खंडित पुलकित
यह क्षुर-धारा को चूम रहा,
वह अंगारों का मधु-रस पी
केशर-किरणों-सा झुम रहा,
अनमोल बना रहने को कब टूटा कंचन हीरक पिघला?
नीलम मरकत के संपुट दो
जिमें बनता जीवन-मोती,
इसमें ढलते सब रंग-रुप
उसकी आभा स्पदन होती!
जो नभ में विद्युत-मेघ बना वह रज में अंकुर हो निकला!
संसृति के प्रति पग में मेरी
साँसों का नव अंकन चुन लो,
मेरे बनने-मिटने में नित
अपने साधों के क्षण गिन लो!
जलते खिलते जग में घुलमिल एकाकी प्राण चला!
सपने सपने में सत्य ढला!
(दीपशिखा 1942)