प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूं - agyey

Avinash
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अज्ञेय को भारतीय साहित्य में आधुनिकता का पुरोधा माना जाता है. क्रांतिकारी, कवि, कथाकार, आलोचक, अनुवादक, संपादक, संस्कृतिकर्मी, यायावर… क्या नहीं थे अज्ञेय. अर्थात् सब कुछ थे अज्ञेय.

हिंदी कविता में ‘सप्तक परंपरा’ के आविष्कारक अज्ञेय को लगभग सभी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से नवाजा गया. 16 कविता-संग्रह, 8 कहानी-संग्रह और ‘शेखर : एक जीवनी’ जैसे कालजयी उपन्यास सहित 3 उपन्यासों के रचनाकार अज्ञेय भारतीय साहित्य के सबसे उज्ज्वल नामों में से एक हैं.

यहां प्रस्तुत है अज्ञेय की एक कविता : ‘मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!’ कहते हैं कि यह कविता उन्होंने दिल्ली में 21 जुलाई 1936 को एक कवि-सम्मेलन में बैठे-बैठे ही लिख दी थी.... 

प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!

बह गया जग मुग्ध सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!


तुम विमुख हो, किंतु मैंने कब कहा उन्मुख रहो तुम?

साधना है सहसनयना—बस, कहीं सम्मुख रहो तुम!

विमुख-उन्मुख से परे भी तत्व की तल्लीनता है—

लीन हूं मैं, तत्वमय हूं, अचिर चिर-निर्वाण में हूं!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!


क्यों डरूं मैं मृत्यु से या क्षुद्रता के शाप से भी?

क्यों डरूं मैं क्षीण-पुण्या अवनि के संताप से भी?

व्यर्थ जिसको मापने में हैं विधाता की भुजाएं—

वह पुरुष मैं, मर्त्य हूं पर अमरता के मान में हूं!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!


रात आती है, मुझे क्या? मैं नयन मूंदे हुए हूं,

आज अपने हृदय में मैं अंशुमाली को लिए हूं!

दूर के उस शून्य नभ में सजल तारे छलछलाएं—

वज्र हूं मैं, ज्वलित हूं, बेरोक हूं, प्रस्थान में हूं!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!


मूक संसृति आज है, पर गूंजते हैं कान मेरे,

बुझ गया आलोक जग में, धधकते हैं प्राण मेरे

मौन या एकांत या विच्छेद क्यों मुझको सताए?

विश्व झंकृत हो उठे, मैं प्यार के उस गान में हूं!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!


जगत है सापेक्ष, या है कलुष तो सौंदर्य भी है,

हैं जटिलताएं अनेकों-अंत में सौकर्य भी है

किंतु क्यों विचलित करे मुझको निरंतर की कमी यह—

एक है अद्वैत जिस स्थल आज मैं उस स्थान में हूं!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!


वेदना अस्तित्व की, अवसान की दुर्भावनाएं—

भव-मरण, उत्थान-अवनति, दु:ख-सुख की प्रक्रियाएं

आज सब संघर्ष मेरे पा गए सहसा समन्वय—

आज अनिमिष देख तुमको लीन मैं चिर-ध्यान में हूं!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!


बह गया जग मुग्ध सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!

प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!

# सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’.

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