Jitna tumhara sach h जितना तुम्हारा सच है/अज्ञेय

Avinash
0

  जितना तुम्हारा सच है/अज्ञेय



1.

कहा सागर ने : चुप रहो!

मैं अपनी अबाधता जैसे सहता हूँ, अपनी मर्यादा तुम सहो।

जिसे बाँध तुम नहीं सकते 

उसमें अखिन्न मन बहो।

मौन भी अभिव्यंजना है : जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो।

कहा नदी ने भी : नहीं, मत बोलो, 

तुम्हारी आँखों की ज्योति से अधिक है चौंध जिस रूप की

उसका अवगुंठन मत खोलो 

दीठ से टोह कर नहीं, मन के उन्मेष से 

उसे जानो : उसे पकड़ो मत, उसी के हो लो।

कहा आकाश ने भी : नहीं, शब्द मत चाहो 

दाता की स्पर्ध्दा हो जहाँ, मन होता है मँगते का। 

दे सकते हैं वही जो चुप, झुक कर ले लेते हैं। 

आकांक्षा इतनी है, साधना भी लाए हो?

तुम नहीं व्याप सकते, तुममें जो व्यापा है उसी को निबाहो ,


2. 

यही कहा पर्वत ने, यही घन-वन ने, 

यही बोला झरना, यों कहा सुमन ने।

तितलियाँ, पतंगे, मोर और हिरने, 

यही बोले सारस, ताल, खेत, कुएँ, झरने।

नगर के राज-पथ, चौबारे, अटारियाँ, 

चीख़ती-चिल्लाती हुई दौड़ती जनाकुल गाड़ियाँ।

अग-जग एक मत! मैं भी सहमत हूँ। 

मौन, नत हूँ।


तब कहता है फूल : अरे, तुम मेरे हो।

वन कहता है : वाह, तुम मेरे मित्र हो।

नदी का उलाहना है : मुझे भूल जाओगे?

और भीड़-भरे राज-पथ का : बड़े तुम विचित्र हो!

सभी के अस्पष्ट समवेत को 

अर्थ देता कहता है नभ : मैंने प्राण तुम्हें दिए हैं, 

आकार तुम्हें दिया है, स्वयं भले मैं शून्य हूँ।

हम सब सब कुछ, अपना, तुम्हारा, दोनों दे रहे हैं तुमको 

अनुक्षण;

अरे ओ क्षुद्र-मन!

और तुम हमको एक अपनी वाणी भी हो 

सौंप नहीं सकते?



*जितना तुम्हारा सच है


अज्ञेय






 

Post a Comment

0Comments
Post a Comment (0)